मंगलवार, 10 अगस्त 2010

खास आदमियों की भीड़ में खोते आम लोग

गले के इंफेक्शन से परेशान मैंने फैसला किया कि इस बार मैं सफदरजंग हॉस्पिटल में इसका उपचार करवाऊंगा। इसी के तहत शनिवार को मैं सफदरजंग पहुंच गया। सबसे पहले लाईन में लगकर दो घंटे में अपना पर्चा बनवाया। पर्चा बनवाकर चौथे महले पर डॉक्टर के कमरे के सामने वाली लाईन का हिस्सा बना जिसमें मेरा नंबर 28वां था। मैंने जब सोचा कि मैं खुद जाकर बिना किसी सोर्स सिफारिश के अपना इलाज करवाऊंगा तो उस समय दिल बहुत खुश हुआ। पर यहां आकर आम आदमी की हालत देखकर मेरे दिल ने बस यही कहा कि भगवान कुछ भी करो पर किसी को आम आदमी मत बनाओ। आम आदमी का तो बुरा हाल है यार!
डॉक्टरों के कमरे के सामने लगी लाईनें जस की तस पड़ी थीं पर खास लोग बिना किसी रोक-टोक के मस्ती से इलाज करवाकर जा रहे थे। उन खास लोगों में कुछ डाक्टरों के खास थे तो कुछ सफदरजंग हॉस्पिटल के लोगों के खास। किसी तरह से मेरा नंबर आम आदमी के तौर पर आया मेरे सामने एक महिला खड़ी थी उस महिला को देखकर मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के कुछ पात्र आंखों के सामने आ गए। उम्र सिर्फ 30 साल की थी पर काया 60 वर्ष की लग रही थी।
डॉक्टर के पास वह अपना कान दिखाने आई थी। मुंह में मास्क बांधे डॉक्टर महोदया ने उसका सत्कार कुछ यूं किया। तुम फिर आ गईं? अभी तुम्हारा कान ठीक नहीं हुआ? तुम्हें देखते-देखते तो मैं खुद बीमार हो जाऊंगी। एक काम करो रूम नंबर 4** में जाओ वहां डॉक्टर खन्ना से मिलो। इतने शब्दों का इलाज के रूप में प्रसाद पाकर वह महिला चली गई। अब मेरा नंबर था? शक्ल और कपड़ों से थोड़ा ठीक-ठाक दिख रहा था। तो मैडम ने स्टूल खिसकाकर बैठने का इशारा किया। मैंने कहा मैडम गला ठीक नहीं हो रहा बहुत परेशान हूं। चार मिनट में मैडम ने दो सप्ताह की दवा लिखकर दे दी और इस कोर्स को पूरा करके एक बार फिर आना। डॉक्टर को धन्यबाद देकर मैं बाहर निकला।
घर चलने के लिए जैसे ही लिफ्ट के पास पहुंचा उस महिला से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने उससे पूछा हो गया आपका इलाज तो उसने जवाब दिया कि अगले महीने की डेट दी है। मैंने उससे पूछा कि आप कहां रहते हो? तो जवाब मिला इटावा जिले के रहने वाले हैं और दो दिन से शनिवार का इंतजार कर रहे थे जिससे रूम नंबर 460 के डॉक्टर से मुलाकात हो जाए। यह सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मन में आया कि डॉक्टर से जाकर अभी लड़ पड़ूं फिर सोचा मैं भी तो आम आदमी हूं उसी लाईन से गुजरकर 4 घंटे में बाहर आया हूं।
मैं नहीं कहता कि सभी लाईनें खत्म हो जाएं या फिर बीमारों को डॉक्टर भगवान की तरह पूजें। पर मन करता है कि सबको एक बेसिक रेसपेक्ट तो दिया ही जा सकता है। आम आदमी को एक इंसान की तरह इज्जत देकर उनका मान खास की तुलना में कुछ तो बढ़ाया ही जा सकता है। माना एक डॉक्टर सरकारी अस्पताल में ढेर सारे मरीज देखता है पर कुछ भी क्यों न हो उनका फर्ज बनता है कि वे किसी के साथ अभद्रता से पेश न आएं।
फिल्म का हीरो नहीं हूं सो व्यवस्था को एक पल में बदल नहीं सकता। सरकार नहीं हूं कि कोई पुख्ता व्यवस्था कर सकूं। पर इससे ऊपर एक आम आदमी हूं जो एक आम आदमी का दर्द समझता है। सबकुछ कैसे बदलेगा मैं नहीं जानता पर हर किसी से एक इंसान को बेसिक रेसपेक्ट देने की उम्मीद रखता हूं।

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