मुंबई से मेरा संबंध बहुत पुराना नहीं है लेकिन यदाकद मैं दो साल पहले तक यहॉं
आया करता था और घूमकर वापस चला जाता था। लेकिन मेरे जिंदगी के उतार-चढावों ने मुझे पूरी तरह से इस शहर का
बना दिया। मुझे 2010 में पुणे में एक बडी कंपनी में नौकरी मिली और मैं वहॉं शिफट
हो गया। लेकिन कहते हैं न कि रिश्ते उपर वाला बनाता है इसलिए मेरा एक साल के अंदर
मायानगरी से नाता जुड गया क्योंकि मेरा दफतर पूरी तरह से मुंबई शिफट हो गया। मेरा
काम था गाडियों का परीक्षण करना व उनका रिव्यू लिखना इसलिए मुझे पत्रकारिता के
मूल रूप से कोई मतलब नहीं रह गया। अखबारों से कोई खास लगाव नहीं रहा और न ही न्यूज
चैनलों की भ्रामक खबरें अपनी ओर लुभा पा रही थीं।
मुंबई, पूना, नासिक, गोवा,
औरंगाबाद जैसे शहर मेरे लिए नोएडा-दिल्ली का सफर बनकर रह गया था। सपने सिर्फ गाडियों के आते
थे और जब मैं जगता था तो बस अपने को उनमें ही पाता था। लेकिन अचानक एकदिन मन ने
कुछ बदलाव की इच्छा जाहिर की। एक बार मेरा मन फिर उस हार्डकोर पत्रकारिता की ओर
खिंचा जिसे मैंने अपनी डिक्शनरी में मूर्खता के पर्यायवाची के रूप में मार्क कर
दिया है। लेकिन मैं वहॉं नौकरी करने की इच्छा लेकर आगे नहीं बढा था बल्कि उसका
मैं अहसास करना चाहता था।
तीन दिन पहले मुझे एक संपन्न व्यक्ति
के माध्यम से एक ऐसी जगह जाने का मौका मिला जहॉं अब न तो मैं गया था और न ही मेरे
खानदान में किसी ने उसका अनुभव लिया था। दिल्ली से आए मेरे एक दोस्त की जान-पहचान से मैं मुंबई के एक बार में गया(आपकी जानकारी के लिए बता दूँ मुझे नहीं
पता था कि मैं कहॉं जा रहा हूँ, बस मैं उनका अनोखा मेहमान था और उनके कहने पर कहीं
जा रहा था)।
रात के साढे ग्यारह बजे मुंबई के
सीलिंक की लाइटें पँक्तिबद्व होकर ऐसे चमक रही थीं मानो अभी अभी मुंबई पर जवानी
चढी हो। मेरे लिए यह जगह एकदम नई लग रही थी जबकि मैं पूरे दिन में यहॉं से कम से
कम पॉंच बार गुजरता हूँ। लेकिन बीएमडब्ल्यू 5 सीरीज में बैठकर पहली बार मैं इस
रास्ते से गुजरा था और यह बताना खास हो जाता है कि पहली बार मैं मुंबई में सीलिंक
गुजर रहा था जब गाडी मेरे अलावा कोई और चला रहा था।
मेरे मेजबान ने अपने गाडी के
अनुभव को बताते हुए कहा,''ऐसी गाडियों को चलाने का मजा रात में ही आता है।'' सीलिंक पर पैसा
देने के बाद हम उस ओर बढे जो हमारी मंजिल थी पर वह मंजिल क्या थी वह मुझे पता
नहीं था। सीलिंक खत्म होने के तीन किलोमीटर बाद हम एक ऐसी जगह रुके जहॉं पूरी तरह
से सन्नाटा पसरा था। और ऐसा लग रहा था जैसे अंदर कुछ हो ही नहीं रहा। यह जगह इतनी
शॉंत थी कि मैं अपनी गाडी के हल्के एक्जॉस्ट नोट को बंद शीशे के अंदर महसूस कर
सकता था। वहॉं पहुँचते ही मेरे मेजबान ने अपनी गाडी की चाभी ड्राइवर को दी हम तीन
लोग बाहर निकले। दरबान ने एक दरवाजा खोला हम अंदर पहुँच गए।
हम अपने मेजबान को फॉलो करते हुए
आगे बढे तभी एक बेटर टाइप के व्यक्ति ने जिसने काले रंग का कोट और काले जूते
पहनकर रखे थे तथा उसकी भरी हुई मूछें थी उसने हमें रोका। हमारे रुकते ही उसने कहा
सर यहॉं बंद है आप उपर चले जाइए, हम भला आपको कैसे रोक सकते हैं।
उस बेटर पर थोडी बेरुखी दिखाते
हुए हमारे मेजबान ने कहा,''तुम हमें रोक भी नहीं सकते हो।'' हमने 9 सीढियॉं
चढीं और एक दरवाजा हमारे स्वागत में खुला, और जैसे ही यह दरवाजा खुला पूरे सन्नाटे
में एक ऐसा शोर घुल गया जिसकी हमने उम्मीद नहीं की थी। हम एक गोलाकार हॉल में
पहुँचे, जिसके चारों ओर सोफे लगे थे और उसके सामने टेबल लगी थी, एक किनारे चार
सिंगर अपना डेरा जमाए हुए थे और बारी-बारी से अपनी पेशकश दे रहे थे। इस हॉल के बीच में 9 लडकियॉं
खडी थीं जिन्होंने साडी पहन रखी थी उनके ओपन ब्लाउज से उनकी हॉटनेस दिख रही थी।
कोई डॉंस नहीं कर रहा था, क्योंकि इस बदनाम जगह पर कानून के नियमों का अनुसरण
किया जा रहा था(मुंबई में बार में
डांस पर प्रतिबंध है, इसलिए एक बार में सिर्फ गाना गाया जा सकता है और तीन लडकियॉं
सिंगर के तौर पर तीन बेटर के तौर पर बार में मौजूद रह सकती हैं, अब मैं यहॉं यह स्पष्ट
करने नहीं जा रहा कि यहॉं पर किस तरह से कानून का उल्लंघन हो रहा था)।
यहॉं बैठे हुए लोगों को जब मैंने
ध्यान से देखा तो उसमें कई चेहरों को मैंने कई टीवी चैनलों पर किसी न किसी
विशेषज्ञ के रूप में देख रखा था। यहॉं पर तकरीबन 40 लोग थे। हर किसी के सामने बीस
रुपये के नई नोटों का पहाड लगा हुआ था। लोग दारु पीते थे और लडकियों को निहारते
रहते थे और थोडी थोडी देर के अंतराल पर उनको बुला बुलाकर कुछ पैसे दे रहे थे(20 रुपये वाली नोट की हजार रुपये की गडडी
)।
10 मिनट यहॉ बैठकर मुझे यह समझ आ
गया था कि यह बारों का आधुनिक रूप है जिसमें डॉंस प्रतिबंधित है लेकिन लडकियॉं
नहीं। कानून के नियमों का पालन कैसे किया जाता है इसकी जीती जागती मिसाल मैंने
यहॉं देखी। अब मैं अपने को यहॉं पर एक पिछडे वर्ग का महसूस कर रहा था क्योंकि
मेरे पास यहॉं पर लुटाने के लिए रुपये ही नहीं थे। एक बदनाम जगह पर भी कटेगरी होती
है। यहॉं खडी लडकियॉं देखकर थोडी देर तक तो इशारे करती रहीं लेकिन इसके बाद हम
उनके लिए उन तुच्छ प्राणियों में शामिल हो गए थे जैसे कि मुंशी प्रेमचंद की
कहानियों के वो पात्र जो पिछडी जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे।
यहॉं पर आया हर कोई जो रंगरेलियॉं
मनाने आया था उसे हम पर दया आ रही थी। शायद ऐसा ही वे हमारे लिए सोच रहे थे। लेकिन
कहते हैं कि जब तूफान आने से पहले एक अनजाना सन्नाटा पसर जाता है। और सबकी
प्रतिक्रिया हमारे लिए शायद वही सन्नाटा थी। हमारा मेजबान नीचे गया और 10 मिनट
बाद वह वापस आया, और वापस लौटकर सिगरेट की कस लेते हुए बोला,''दादा जहॉं भी रहो
नंबर वन रहो नहीं तो जिंदगी जीने में मजा नहीं आता।''
इसके पहले हम कोई प्रतिक्रिया व्यक्त
करते तूफान आ चुका था। हमारे मेजबान के एक इशारे पर हमारे सामने बीस के नोटों की
इतनी उँची गडडी लग गई थी जितनी और किसी के सामने नहीं थी। दूसरे इशारे पर हमारे
सामने सारे सिंगर आ गए और उन्हें हिदायत दी गई कि वह पूरे आधे घंटे तक बार में
भजन गाऍं और यह गीत वहीं हमारे सामने खडे होकर गाऍं।
इसके बाद हम नोट उडा रहे थे, भजन
चल रहा था, पूरे बार में भक्ति का संचार हो चुका था, जो बुजुर्ग वहॉं अपनी बेटी की
उम्र की लडकियों को विलासिता के लिए ढूंढते हुए आए थे उनकी तालियॉं भी हमें दिख
रही थीं। हमारे मेजबान ने पूरे आधे घंटे तक नोटों की बारिश जारी रखी और जब पैसे
खत्म हुए तो जिस महफिल में हम दलित थे उसके हम राजा बन चुके थे फर्क बस इतना था
कि हमने लडकियों को एक पैसा नहीं दिया और इसके बावजूद पूरी महफिल लूट ली।
हमारे मेजबान ने एक बदनाम जगह पर
जाकर जो नाम किया वह भले ही और लोगों के समझ में न आया हो लेकिन उसकी यह अदा मुझे
बहुत मजेदार लगी। आधे घंटे बाद जब भजन खत्म हुआ और हमारे हाथ पैसे उडाकर थक गए तो
हम बाहर निकले और अपनी बीएमडब्ल्यू में बैठकर घर की राह पकडी।
मैं एक बार से होकर लौट रहा था
लेकिन मैंने वहॉं के नेचर के विपरीत कुछ किया था, दारू की जगह मैंने कोक पी,
लडकियों की विलासिता छोडकर भजन में सराबोर हुआ। लेकिन आज मुझे एक बात समझ में आ गई
इस दुनिया में जिंदगी का मजा सिर्फ दो ही लोग ले सकते हैं एक तो वो जिनके पास अपार
पैसा है तथा दूसरे वो जिनके पास पैसा नहीं बल्कि दिमाग है।
मेरा मेजबान किसी हीरो से कम नहीं
था क्योंकि उसने अपने पैसे फालतू जगह पर उडाने के बजाए एक ऐसी मिसाल पेश की
जिसमें जरा सी भी गंदगी शामिल नहीं थी। आप कह सकते हैं कि यह जगह ठीक नहीं थी
लेकिन मेरे हिसाब से यही वो जगहें हैं जहॉं पर भजनों की जरूरत है जिससे लोगों को
सदबुदिद्व मिले। घर में भजन गाने का क्या फायदा जिससे किसी को फायदा न मिले।
चले थे मगरूर होकर मयखाने को
जेब में फूटी कौडी नहीं थी लुटाने को।।
लेकिन लूट ली महफिल उस जमाने से
जो पैसे फेंककर लेते हैं चुस्की पयमाने से।।
हमने सीखी महफिलें जमानी उस बेगाने से
जिनसे मिला था चार दिन पहले एक चौराहे पे।।
वैसे हमें कोई जरूरत नहीं है यह बताने की
क्या होता है अब मुंबई के मधुशाले में।।
कल जिसे दादा बनने के भेजा था जेलखाने में
आज वह असली दादा बन बैठा है इस जमाने में।।
बंद कर दो अब गाना गाना गूशलखाने में
क्योंकि वहॉं से आवाज नहीं जाती इस गुलशियाने में।।
जब देखा नाम कमाकर नाम रोशन न होगा जमाने में
तो जनाब बदनाम हो गए नाम कमाने को अपने ही इलाके में।।
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